चल रहे है, चल रहे है, लेकिन ये क्या मंज़िल नही दिख रही है..समझ नही आ रहा है कि हम गलत रास्ते पर है या हम मंज़िल को नही पहचान पा रहे है..खैर मंज़िल तो मिल ही जाएगी क्योकि हमे रुकना नही है, चलते रहना है, लड़ते रहना है..हमने यही सीखा है चलते रहना लड़ते रहना क्योकि अगर हम ये नही करेंगे यो शायद हम ज़िंदा नही रह पाएंगे..क्योकि मैं ऐसा सोचती हूं अगर मंज़िल की हल्की सी भी झलक मिल जाये तो उस तक पहुचने के लिए जी और जान एक कर देना है..क्योकि जनाब मंज़िल बहुत मुश्किल से दिखती है..और अगर मंज़िल में ठोकरे और दर्द ना हो, तो उस मंज़िल को पाने का क्या मज़ा..
एक राज़ की बात है वो ये है कि जब आप मंज़िल की तलाश में निकलेंगे तो आप उस दिन खुद को पहचानेंगे..और खुद को पहचानना ही इस ज़िन्दगी का सबसे बड़ा टास्क होता है..कभी ध्यान से खुद से पूछियेगा की मैं कौन हूँ..और जवाब जो भी मिले उसके बारे में सोचियेगा...वैसे बहुत मुश्किल है कि इसका जवाब आप को मिले..क्योकि जनाब हम खुद को वक़्त ही नही देते तो कैसे खुद को पहचानेंगे..वही अगर आप से किसी और के बारे में पूछेंगे तो आप का जवाब झट-पट आएगा..खैर ये बाते छोड़ते है क्योकि आज तो हम मंज़िल की तलाश में निकले है...
मंज़िल मतलब क्या?..आप क्या समझते है मंज़िल से..खैर आप क्या समझते है वो मुझे नही पता पर हां, जो मैं समझती हूँ वो बताना चाहती हूं..मंज़िल वो रोशनी है जो सिर्फ मुझे दिखती है और ताकत देती है वहां तक पहुँचने की क्योकि वो मेरी मंज़िल है..हम इस धरती पर उस मंज़िल के लिए आये है..और जिसके लिए आये है वो नही पा सके और उसके लिए ना लड़ सके तो ये ज़िन्दगी का क्या फायदा..फिर ज़िन्दगी "वेस्ट ऑफ टाइम" है..ये मंज़िल कुछ भी हो सकती है बस आप को पहचानना है...कुछ लाइन है मंज़िल के ऊपर उम्मीद करती हूं कि आप को पसंद आये..
मिलेगी मिलेगी मंज़िल
"मिलेगी मिलेगी मंज़िल
चलके कहीं दूर
आये हैं चले जाने को
आये हैं चले जायेंगे
दूर मजबूर
मिलेगी मिलेगी मंज़िल...
कैसी है ये दुनिया
प्यार का नाम-ओ-निशान नहीं
नादान दुनिया वाले देखो
यहां पे कोई ईमान नहीं
अकेले ढूंढते
सवेरा सवेरा
सवेरा सवेरा आएगा चल के दो कदम
फासले घट जाएंगे हौसले बढ़ जाएंगे
चल के दो कदम
मिलेगी मिलेगी मंज़िल..
चलते दुनिया वाले सारे
राह मगर अनजान कहीं
मैं तो हूं दीवाना मेरी दीवानगी बेनाम सही
अकेले ढूंढने
चल के दो कदम
मिलेगी मिलेगी मंज़िल"...
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